Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-सब डर गए। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा– महाराज, आप यहां न आया कीजिए। हमें पंडित उमानाथ के कोप में न डालिए। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें, तो हम बिना मारे ही मर जाएं।

कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आए और बोले– मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहां रहना अखरने लगा।

उमानाथ– आपका घर है, आप जब तक चाहें रहें, पर मैं यह चाहता हूं कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करें।

कृष्णचन्द्र– तो किसके साथ बैठूं? यहां जितने भले आदमी हैं, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सब-के-सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। यह मेरे लिए असह्य है। तुम इनमे से किसी को बता सकते हो, जो पूर्ण धर्म का अवतार हो? सब-के-सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले व्यभिचारी हैं। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किए का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए हैं, मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते हैं। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी हैं। बगुलाभक्तों के सामने मैं दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूं, जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते हैं, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते। अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत को बट्टा लगता है, तो मैं जबर्दस्ती तुम्हारे घर में नहीं रहना चाहता।

उमानाथ– मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नहीं मना किया था। आप जानते हैं कि मेरी सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है। आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आंखें नीची करनी पड़ती हैं।

कृष्णचन्द्र– तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया-गुजरा है, तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा हूं और अधिकारियों के आचार-व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूं। वे सब चोर हैं। कमीने, चोर, पापी और अधर्मियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।

उमानाथ– आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्हीं की कृपा-दृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूं? आपने तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहां का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा, तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जाएगा। ये लोग किसके मित्र होते हैं?

कृष्णचन्द्र– यहां का थानेदार कौन है?

उमानाथ– सैयद मसऊद आलम।

कृष्णचन्द्र– अच्छा, वही धूर्त सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कांस्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अब की उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूं कि वह भी याद करे।

उमानाथ– अगर आपको यह उपद्रव करना है, तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिए। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊंगा।

कृष्णचन्द्र– इसीलिए कि तुम इज्जत वाले हो और मेरा कोई ठिकाना नहीं। मित्र, क्यों मुंह खुलवाते हो? धर्म का स्वांग भरकर क्यों डींग मारते हो? थानेदारों की दलाली करके भी तुम्हें इज्जत का घमंड है?

उमानाथ– मैं अधम पापी सही, पर आपके साथ मैंने जो सलूक किए, उन्हें देखते हुए आपके मुंह से ये बातें न निकलनी चाहिए।

कृष्णचन्द्र– तुमने मेरे साथ वह सलूक किया कि मेरा घर चौपट कर दिया। सलूक का नाम लेते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम्हारे सलूक का बखान यहां अच्छी तरह सुन चुका। तुमने मेरी स्त्री को मारा, मेरी एक लड़की को न जाने किस लंपट के गले बांध दिया और दूसरी लड़की से मजदूरिन की तरह काम ले रहे हो। मूर्ख स्त्री को झांसा देकर मुकदमा के बहाने से खूब रुपए उड़ा दिए और तब अपने घर लाकर उसकी दुर्गति की। आज अपने सलूक की शेखी बघारते हो।

अभिमानी मनुष्य को कृतघ्नता से जितना दुःख होता है, उतना और किसी बात से नहीं होता। वह चाहे अपने उपकारों के लिए कृतज्ञता का भूखा न हो, चाहे उसने नेकी करके दरिया में ही डाल दी हो, पर उपकार का विचार करके उसको अत्यंत गौरव का आनंद प्राप्त होता है। उमानाथ ने सोचा, संसार कितना कुटिल है। मैं इनके लिए महीनों कचहरी, दरबार के चक्कर लगाता रहा, वकीलों की कैसी-कैसी खुशामदें कीं, कर्मचारियों के कैसे-कैसे नखरे सहे, निज का सैकड़ों रुपया फूंक दिया, उसका यह यश मिल रहा है। तीन-तीन प्राणियों का बरसों पालन-पोषण किया, सुमन के विवाह के लिए महीनों खाक छानी और शान्ता के विवाह के लिए महीनों से घर-घाट एक किए हूं, दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गए, रुपये-पैसे की चिंता में शरीर घुल गया और उसका यह फल! हां! कुटिल संसार! यहां भलाई करने में भी धब्बा लग जाता है। यह सोचकर उनकी आंखें डबडबा आईं। बोले– भाई साहब, मैंने जो कुछ किया, वह भला ही समझकर किया, पर मेरे हाथों में यश नहीं है। ईश्वर की यही इच्छा है कि मेरा किया-कराया सारा मिट्टी में मिल जाए, तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला, अब जो सजा चाहे दीजिए, और क्या कहूं?

उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया, वह हो गया; अब मेरा पिंड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबंध करो, पर डरे कि इस समय क्रोध में कहीं वह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जाएं। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय में करुणा भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक के मुंह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शांत किया, पर दोनों में बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी-अपनी जगह विचारों में डूबे बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते हैं। उमानाथ सोचते थे कि बहुत अच्छा हुआ; जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुर्दे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्त्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी, संध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा– शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?

उमानाथ– हां, चुनार में, पंडित मदनसिंह के लड़के से।

कृष्णचन्द्र– यह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते हैं। कितना दहेज ठहरा है?

उमानाथ– एक हजार।

कृष्णचन्द्र– इतना ही ऊपर से लगेगा?

उमानाथ– हां, और क्या।

कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गए। पूछा– रुपयों का प्रबंध कैसे होगा?

उमानाथ– ईश्वर किसी तरह पार लगाएंगे ही। एक हजार मेरे पास हैं, केवल एक हजार की और चिंता है।

कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा– मेरी दशा तो तुम देख ही रहे हो। इतना कहते-कहते उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े।

उमानाथ– आप निश्चिंत रहिए, मैं सब कुछ कर लूंगा।

कृष्णचन्द्र– परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है, उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे में नहीं हूं, इस कठिन यंत्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्मा को पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूं। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतना सामर्थ्य कहां था कि मैं इतने भारी बोझ को संभालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी। यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूं। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूं। मैं कल बनारस जाऊंगा। यों मेरे पहले के जान-पहचान के तो कई आदमी हैं, पर उनके यहां नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है?

उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले– विवाह तक तो आप यहीं रहिए। फिर जहां इच्छा हो जाइएगा।

कृष्णचन्द्र– नहीं, कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊंगा। दो-चार दिन सुमन के यहां ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा। किस मुहल्ले में रहती है?

उमानाथ– मुझे ठीक से याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से मैं उधर नहीं गया। शहर वालों का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते हैं? मालूम नहीं अब किस मुहल्ले में हों।

रात को भोजन के साथ कृष्णचन्द्र ने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेतों को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।

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1 Comments

Renu

30-Mar-2022 10:21 PM

बहुत ही बेहतरीन

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